हिंदी पत्रकारिता में यातना और संघर्ष का इतिहास सुरक्षित: प्रो. कुमुद शर्मा
नव उन्नयन साहित्यिक सोसाइटी द्वारा ‘आजादी का अमृत महोत्सव’’ के विशेष संदर्भ में साप्ताहिक व्याख्यान माला का आयोजन किया जा रहा है । इसमे इस सप्ताह का विषय था ‘‘स्वाधीनता संग्राम और हिंदी पत्रकारिता’’। इस महत्वपूर्ण विषय पर प्रो. कुमुद शर्मा जी ने अपने विचार रखे। हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. कुमुद शर्मा जी भारतीय पत्रकारिता, साहित्य, समाज और संस्कृति की विशेषज्ञ होने के साथ वर्तमान समय की श्रेष्ठ समालोचक हैं । सुस्पष्ट और सरस विश्लेषण शैली उनकी अपनी विशिष्टता है ।

प्रो. कुमुद शर्मा ने कहा कि भारतीय पत्रकारिता में भारतीय जन की लंबी यातना और संघर्ष का इतिहास सुरक्षित है। भारत को बडे त्याग और बलिदान के बाद आजादी प्राप्त हुई। इसमें पत्रकारिता की बडी भूमिका है। स्वाधीनता संघर्ष की पत्रकारिता के योगदान पर व्यापक चिंतन होना चाहिए। यह अवसर है कि हम भारतीय स्वतंत्रता में योगदान देनेवाले महान पत्रकारों को याद करें । उनके प्रदेय को सभी के सामने उजागर करें । नव उन्नयन साहित्यिक सोसाइटी इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिए बधाई की पात्र है। मैं आशा करती हूं कि ऐसे आयोजन और भी होंगे। आपने कहा कि अपने आरंभिक दौर से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक पत्रकारिता राष्टीय चेतना का मंच थी । इसका बीज शब्द था स्वतंत्रता । स्वाधीनता के बिना आप स्व को नहीं खोज सकते । स्वाधीनता आंदोलन के समय पत्रकारिता स्वाधीनता की वाणी थी । स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र का दर्पण बनी । सन् 1857 की क्रांति का असर पूरे देश पर दिखाई पडता है पत्रकारिता में इसकी जडें और गहरी थीं । ‘पयामे आजादी’ नामक पत्र हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में निकलता था । इसमें मंगल पाण्डे, झांसी की रानी, तात्यां टोपे आदि की बहादुरी के किस्से छापे जा रहे थे । बहादुर शाह जफर की अपील भी इसी के माध्यम से आई थी । आजादी की सभी सूचनाएं ‘पयामे आजादी’ के माध्यम से जन जन तक पहुंचाई जा रही थीं। संपादकों पर अत्याचार के प्रमाण तो कई हैं पर ‘पयामे आजादी’ के पाठकों पर भी अत्याचार किए गए । इसके पाठकों पर राजद्रोह के मुकदमें चलाए गए । पत्रकारिता में आजादी की आग को उनके नाम और मूल वाक्य से भी समझा जा सकता है । प्रकाश , सूरज प्रकाश आदि नाम से पत्र निकलते थे और स्वतंत्रता की चाह लिए हुए कवितांश ध्येय वाक्य बनते थे । उदंत मार्तंड के प्रकाशन सन् 1826 से 1857 तक के पत्रों की छवि क्या थी, इसका प्रमाण इसाई पादरी जेम्स की सोच में दिखाई पडता है । वे इन पत्रों को वीर काव्य का परिचय कहते थे। उनका मानना था कि भारतीय समाचार पत्र समाज के ‘सेफ्टी वाल’ हैं।

आजादी पूर्व के पत्रों में अंग्रेजांे का विरोध दर्ज कराया जा रहा था । पत्रकार के विज्ञापन में एक समय रोटी खाने की शर्त होती थी । पत्रकारिता सामाजिक आंदोलनों का हथियार थी। यह पत्रकारिता आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देती है। भारतेंदु युग की पत्रकारिता का राष्ट्रीयता से गहरा संबंध है । विदेशी वस्तुओं और विदेशी शासन का विरोध आसान नहीं था । भारतेंदु देश के लोगों से खडे होने का आह्वान करते हैं । सन् 1913, गुरूकुल कांगडी से प्रकाशित पत्र में एक कविता छपती है जिसमें न्याय और अधिकार की मांग की जाती है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर की पत्रकारिता जनता की प्रतिनिधि और जनता की आवाज थी । बाबू पराडकर और दुर्गा प्रसाद जैसे पत्रकार इसका नेतृत्व करते दिखाई पडते हैं। तिलक युग की पत्रकारिता में निर्भीकता आती है । दस दौरान पत्रकारिता ने अनेक देश भक्त पैदा किए । शीर्षकों की निर्भीकता और ध्येय वाक्यों की ऊर्जा स्वयं में शोध का विषय हैं। यहां देश के प्रति लगाव पग पग पर फैला दिखाई पडता है । वस्तुतः इस दौर के पत्रकार पत्र बेचना नहीं चाहते थे वरन् राष्ट्रीय जागरण का ध्येय इनका जीवन लक्ष्य था। बालमुकुंद गुप्त, राधाचरण गोस्वामी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी आदि इसी सोच के पत्रकार थे।

भाषा और पत्रकारिता का भी गहरा संबंध था । हिंदी की रक्षा हेतु पूरा आंदोलन चलाया गया। राधाचरण गोस्वामी ने 21000 व्यक्तियों के हस्ताक्षर कराए थे । ‘एक हृदय हो भारत जननी’ यह उद्घोष था पत्रकारिता का । महावीर प्रसाद द्विवेदी और बालमुकुंद गुप्त ने पत्रकारिता की भाषा के नए मापदंड स्थापित किए । ये सभी स्व के विभिन्न आयामों पर काम कर रहे थे । स्त्री की स्वाधीनता के प्रश्न उठते हैं । स्त्री के हाथों में स्वाधीनता की चाबी दिखाई पडती है । स्त्री शिक्षा को स्त्री स्वावलंबन के रूप में देखा जाता है। पत्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से भी अवगत करा रहे थे । इस दौर की पत्रकारिता में देश नायक था । स्वराज, आत्मबोध, आत्मबलिदान, आत्माभिमान की प्रधानता थी । पत्रकार अंग्रेजों की आंखों में आंख डाल रहे थे । आज पत्रकारिता के सामने उन आदर्शों को बचाने की चुनौती है। हमेें इस दायित्व का निर्वाह करना होगा ।

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो. पूरनचंद टंडन ने कहा कि पराधीन भारत में पत्रकारिता का उदय एक क्रांतिकारी घटना थी । औपनिवेशिक वातावरण में पिसते भारतीय जन के मन की पीडा को व्यक्त करना आसान नहीं था । हम ऋणी हैं उन महापुरुषों के जिन्होेंने दासता की बेडियों और भारतीय जनता की जडता को तोडने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । सारगर्भित और संतुलित वक्तव्य के लिए आपने प्रो. कुमुद शर्मा को बधाई दी ।

कार्यक्रम का संचालन हिंदी विभाग सत्यवती कॉलेज की प्रो. राजरानी शर्मा ने किया । आपने अपने संचालन में प्रस्तावना स्वरूप ही हिंदी पत्रकारिता की नींव के पत्थरों की ओर सचेत संकेत कर दिया था । अतिथि वक्ता का परिचय देते हुए आपने श्रोता और वक्ता का मधुर संबंध स्थापित किया ।

कार्यक्रम में विभिन्न विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा साहित्य और पत्रकारिता जगत से जुडे अनेक प्राध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी तथा सुधिजन उपस्थित रहे । डॉ. नृत्य गोपाल ने अतिथियों और सहभागियों का आभार व्यक्त किया ।
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