आत्मनिर्भर भारत के पुरोधा लाला लाजपत राय

28 जनवरी जयंती पर विशेष

कोरोनाकाल के दौरान अचानक बदली हुई परिस्थितियों के चलते प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने देश को आत्मनिर्भरता का नारा दियाआज देश पूरी गति से इस ओर बढ़ता भी दिखाई दे रहा है परंतु अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के चलते निर्धन हुए भारतीय समाज में आत्मनिर्भरता की अलख को पुनर्जागृत करने के लिए हमारे जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने भगीरथ प्रयास किए उनमें सबसे अग्रणीय रहे हैं लाला लाजपत राय जिन्हें जिनकी दृढ़ नेतृत्व क्षमता व जीवटता के चलते पंजाब केसरी या शेरए-पंजाब के नाम से भी जाना जाता है। लाला जी केवल स्वतंत्रता सेनानी व क्रांतिकारी नेता ही नहीं बल्कि उच्च कोटि के अर्थशास्त्री भी थे, और जानते थे कि आत्मनिर्भरता के बिना देश स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर पाएगा। इसीलिए उन्होंने पंजाब नैशनल बैंक की स्थापना की जो आज देश के अग्रणी बैंकों में से एक है। 

इस बैंक की स्थापना 1894 में सरदार दयाल सिंह मजीठिया, लाला हरकिशन लाल, लाला लाल चंद और लाला ढोलन दास इसके फाउंडर मेंबर्स थे। इन लोगों ने पहले ही ये भांप लिया था कि अगर देश को आजादी के बाद तरक्की करनी है, तो उसे खुद के वित्तीय संसाधन खड़े करने होंगे। इसी सोच के साथ इस बैंक की नींव रखी गई। लाला जी पहले शख्स थे, जिन्होंने लाहौर के अनारकली इलाके में आर्य समाज मंदिर के पास खुले बैंक की पहली ब्रांच में कार्यालय में पहला खाता खोलालाला लाजपत राय ने जहां बैंक में अपना खाता खोला तो वहीं बतौर मैनेजर उनके छोटे भाई ने बैंक की कमान संभाली। देश के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और महात्मा गांधी ने भी इस बैंक में खाता खोला था। इसके अलावा जलियांवाला बाग कमेटी से जुड़े सदस्यों ने भी इस बैंक पर भरोसा जताया। 12 अप्रैल, 1895 को बैसाखी से ठीक एक दिन पहले बैंक को कारोबार के लिए खोल दिया गया। पहली बैठक में ही बैंक के मूल तत्वों को साफ कर दिया गया था। 14 शेयरधारकों और 7 निदेशकों ने बैंक के शेयरों का बहुत कम हिस्सा लिया। लाला लाजपत राय, दयाल सिंह मजीठिया, लाला हरकिशन लाल, लाला लालचंद, प्रभु दयाल और लाला ढोलना दास बैंक के शुरुआती दिनों में इसके प्रबंधन के साथ जुड़े हुए थे। पंजाब नेशनल बैंक सच्चे अर्थों में पहला राष्ट्रीय और स्वदेशी बैंक है। हालांकि उससे पहले अवध कमर्शियल बैंक 1881 में खुल चुका था। पीएनबी की पहली ब्रांच 12 अप्रैल 1895 को लाहौर में खुली। अगले पांच सालों के भीतर ये सिंध और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस तक पहुंच गया। इस बैंक के जरिए ही पंजाब में खुशहाली आई। जल्द ही ये बैंक देश के बाहर बर्मा पहुंच गया। 1943 में लाला योधराज ने बैंक की कमान संभाली। इस समय देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। बड़ी संख्या में भारतीय द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ रहे थे। विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने वाला था। मगर जाते-जाते अंग्रेजों ने देश का बंटवारा कर दिया। इसका पंजाब पर सबसे ज्यादा असर पड़ा, क्योंकि बंटवारे के बाद पंजाब का बड़ा हिस्सा भारत-पाकिस्तान के बीच बंटा। बंटवारे ने पंजाबियों और इस प्रांत में रहने वाले हिंदुओं पर गहरा असर डाला, क्योंकि इस प्रांत की अर्थव्यवस्था की कमान इन्हीं के हाथों में थी। पंजाब नेशनल बैंक बैंक में ज्यादा खाते पंजाबी हिंदओं के थे। ऐसे में इनकी पंजी की बदौलत ही बैंक भी फला-फला।

बंटवारे को देखते हुए उस समय पंजाब नेशनल बैंक की कमान संभालने वाले लाला योधराज ने बैंक का मुख्यालय पश्चिम पंजाब से जन 1947 में दिल्ली के अंडर हिल रोड पर स्थानांतरित कर दिया। जैसा शक था. बंटवारे के बाद बैंक का मुख्यालय लाहौर पाकिस्तान में चला गया। ऐसे में लाला योधराज ने मौके की नजाकत को भांपते हुए पहले ही पंजाब नेशनल बैंक की ज्यादा पूंजी भारत में भेज दी थी। 

बंटवारे के कुछ हफ्तों के भीतर ही पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाब नेशनल बैंक की 92 शाखाएं बंद और चालीस प्रतिशत पूंजी बर्बाद हो गई। मगर इसके बाद भी बैंक कर्मचारियों और अफसरों ने देश को दोबारा खड़ा करने में दिन रात एक कर ने भी ग्राहकों को विश्वास दिलाया कि उनका एक रुपया व्यर्थ नहीं जाएगा। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से वाले पश्चिमी पंजाब से भारत आए एक-एक ग्राहक को बैंक ने उनका पैसा लौटाया। इसके बाद धीरे-धीरे पंजाब नेशनल बैंक ने देश में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी। आज देश के विकास व देश को आत्मनिर्भरता के मार्ग पर तेज गति से अग्रसर करने में जो भूमिका पंजाब नैशनल बैंक निभा रहा है वहकिसी से छिपी नहीं है। लाला जी ने अपने साथियों के सहयोग से भारत की आत्मनिर्भरता का जो पुनःप्रस्फुटन किया वह आज वट वृक्ष बनने की ओर है

आज वट वृक्ष बनने की ओर है____ 28 जनवरी, 1865 को पंजाब के तत्कालीन फिरोजपुर जिले और वर्तमान मोगा जिले के गांव ढुढीके में जन्मे लाला लाजपत राय बहपक्षीय प्रतिभा के स्वामी थे। समाज के प्रति लगाव व सेवा भावना उनमें कट-कट कर भरी थी। उन्होंने देश में आए अकाल में पीड़ितों की तन, मन और धन से सेवा की। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की। जब 1905 में बंगाल का विभाजन किया गया तो लाला लाजपत राय ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिलाया और अंग्रेजों के खिलाफ जमकर बगावत की।

__ वे प्रथम विश्वयुद्ध में भारत से सैनिकों की भर्ती के विरोधी थे। अंग्रेजों के जीतने पर उन्होंने यह अपेक्षा नहीं की कि वे गांधी जी की भारत स्वतंत्र करने की मांग स्वीकार कर लेंगे। अंग्रेज सरकार जानती थी कि लाल, बाल (बाल गंगाधर तिलक) और पाल (विपिन चन्द्र पाल) इतने प्रभावशाली व्यक्ति थे कि जनता उनका अनुसरण करती थी। अंग्रेजों ने अपने को सुरक्षित रखने के लिए जब लाला को भारत नहीं आने दिया तो वे अमेरिका चले गए. वहां 'यंग इंडिया' पत्रिका का संपादन-प्रकाशन किया। न्यूयार्क में उन्होंने इंडियन इंफार्मेशन ब्यूरो और इंडिया होमरूल की स्थापना की। साल 1920 में वे कलकत्ता में कांग्रेस के एक विशेष सत्र में वह गांधी जी के संपर्क में आए और असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन गएलालाजी ने अपना सर्वोच्च बलिदान साइमन कमीशन के समय दिया। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए उन्होंने 'अंग्रेजों वापस जाओ' का नारा दिया तथा कमीशन का डटकर विरोध जताया। इसके जवाब में अंग्रेजों ने उन पर लाठी चार्ज किया। चोट की वजह से 17 नवम्बर, 1928 को उनका देहान्त हो गया। लाला जी के विशाल जीवन वृत बांधा जा सकता। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि लाला जी देश के उन महान विभूतियों में से थे जिन्होंने न केवल इतिहास की धारा को मोड़ दिया बल्कि जनसाधारण के जीवन पर भी अपना प्रभाव डाला। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ-साथ देश आज आर्थिक स्वाधीनता की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है उसके पीछे लाला जी जैसे महानभावों का भी हाथ है। 

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