जख्म हरे न रहें

कहते हैं कि मौत का कोई वक्त मुकर्रर नहीं होता लेकिन एक के बाद एक परतें खुलने से मालूम हुआ कि दंगों का समय निश्चित किया जा सकता है। दंगे का समय तय था तभी तो यह न जाने कितने जख्म दे गया। अगर किसी ने दंगे के लिये सोची समझी तैयारी की है तो कहना होगा कि उसने इंसानियत के साथ अपराध किया है, ऐसा अपराध जिसका का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता। पूर्व से सूरज निकलता है तो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है मगर इस बार दिल्ली में पूर्व दिशा से इंसानियत के बीच दीवार और दरार पैदा करने वाला काला अंधकार निकला जिसने दिल्ली के दामन पर दाग लगा दिये, हमारी मिली जुली तहजीब को तार तार कर दिया, हमारे खुलुस के साथ ऐसी दरंदिगी की जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। यह तो अच्छा हुआ कि पूर्व से निकला काला अंधकार वहां की चीखों और मातमपुरसी में सिमट कर रह गया और यह बाकी दिशाओं को अपना निशाना नहीं बना सका। इसने बहुत गहरे जख्म दिये, इसने बेइंतिहा दर्द दिया, इतना दर्द दिया जिसे सहन करने की दिल्ली में कुव्वत नहीं थी। अब अगर हम दंगों के दर्द की तफसील बतायें तो हमारे खुलुस को और ज्यादा नुकसान पहुंचेगा। एक तसकीन का सबब है कि दंगों के नंगे नाच के बाद दोनों मजहब के लोग खुल कर एक दूसरे के जख्मों पर मरहम लगाने की दौड़ में एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश में जुटे हैं। काश कि दंगों के वक्त लोगों के दिलो दिमाग पर शैतान के अरकान हावी नहीं हुये होते तो इंसानियत बदनाम होने से बच जाती। इन दिनों अखबार में छप रहीं खबरों की तारीफ की जानी चाहिये क्योंकि इन में लिखा जा रहा है कि किस तरह दूसरे मजहब के लोग मंदिर को जलाये जाने से बचाने के लिये रात भर पहरा देते रहे और किस तरह एक मस्जिद पर लगे एक झंडे को हटाने के लिये दूसरे मजहब के एक नौजवान ने हिम्मत दिखाते हुये एक पल में जादुई छलांग लगाई। कहते हैं , कई बार लुट जाने, फना हो जाने और बर्बाद हो जाने के बाद इंसानियत आदमी को झकझोरती है और उसके जहन में ईमान और भाईचारे के जज्बात की शीतल हवा का झोंका देती है। अब यही हो रहा है दोनों, मजहब के लोग अमन और चैन की राह तलाश रहे हैं । अगर ऐसा चलता रहा तो दिल्ली के जख्म भर जायेंगे , हरे नहीं रहेंगे। इस तबाही से एक सबक लिया जाना चाहिये कि लीडरों के मंसूबे पूरे करने के लिये उनके बिछाये जाल में कोई आदमी परिंदे की तरह फंसे नहीं।


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