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पुरातन भारतीय ज्ञान-सम्पदा एवं सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पंडित मदन मोहन मालवीय (25 दिसम्बर 1861 – 12 नवम्बर 1946) त्याग, धर्मरक्षा, भक्ति सात्विकता, पवित्रता धर्मनिष्ठा, आत्मत्याग आदि सद्गुणों के साक्षात अवतार ही थे। समाज के प्रति और देश को स्वाधीन कराने में अनेक कष्ट सहन करते हुए भी मालवीय अपने कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हुए। उनकी हार्दिक इच्छा भारतीय संस्कृति हिंदू-मुस्लिम एकता और सभी प्राणियों पर दया करने की थी। भारतीयों को भारतीयता की शिक्षा देने और भारतीय संस्कृति की अभिवृद्धि करने के उद्देश्य से मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस हेतु उनके समक्ष एक ही लक्ष्य था- आधुनिक युगीन विज्ञान, तकनीकी और उद्योग को प्राचीन भारतीय संस्कृति के साथ संयुक्त कर परिष्कृत रूप देना। मदन मोहन की प्रतिभा में अनेक चमत्कारी गुण थे । अपने इन्हीं गुणों के कारण वे अपने देखे सपने भारत-निर्माण के साथ-साथ मानवता के लिए श्रेष्ठ आदर्श सिद्ध हुए। और उनके इन्हीं इन गुणों के कारण ही उन्हें महामना के नाम-रूप में जाना-पहचाना जाता है।
पंडित मदन मोहन मालवीय मध्य भारत के मालवा के निवासी संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान और प्रसिद्ध भागवत कथावाचक पंडित प्रेमधर के पौत्र तथा पंडित विष्णु प्रसाद के प्रपौत्र थे। मदन मोहन मालवीय पिता का नाम पंडित ब्रजनाथ और माता का नाम श्रीमती मोनादेवी था। पण्डित ब्रजनाथ भी प्रेमधर की ही भांति संस्कृत के विद्वान माने जाते थे। ज्योतिष विद्या में भी पण्डित ब्रजनाथ पारंगत थे। उन्होंने चौबीस वर्ष की युवावस्था में ही श्रीमद्भागवत् गीता की व्याख्या लिख दी थी। और वे प्रसिद्धि और रोचक कथावाचक के रूप में भी उसी आयु में प्रसिद्ध हो गए थे। भागवत कथा में उनको प्रवीणता प्राप्त थी। ईश्वर की कृपा से उनकी काया जहां बहुत ही भव्य थी वहां उनकी वाणी भी उतनी ही मधुर और प्रेमप्रवाहिनी थी। परिणामस्वरूप उनकी कथाओं में सर्वाधिक जन समूह एकत्रित होता था। मालवीय की माता श्रीमती मोना देवी, अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं निर्मल ममतामयी देवी की प्रतिमूर्ति थी । उनका जन्म 25 दिसम्बर, 1861 ई0 तदनुसार भारतीय पंचांग के अनुसार पौष कृष्ण अष्टमी, बुधवार, विक्रम सम्वत 1918 को प्रयाग के लाल डिग्गी मुहल्ले के भारती भवन, इलाहाबाद में हुआ था। मालवीय अपने पिता ब्रजनाथ के छः पुत्र- पुत्रियों में सर्वाधिक गुणी, निपुण व मेघावी थे।
महामना की प्रारंभिक शिक्षा प्रयाग के महाजनी पाठशाला में पांच वर्ष की आयु में आरम्भ हुई थी। उनके माता –पिता ने उन्हें पाँच वर्ष की आयु में संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती करा दिया जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात विद्यावर्द्धिनी सभा द्वारा संचालित एक अन्य विद्यालय में वे भेज दिये गये। यहाँ से शिक्षा पूर्ण कर वे इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने गये। यहीं उन्होंने मकरंद के उपनाम से काव्य रचना प्रारम्भ कीं। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं और लोगों द्वारा बड़े चाव से पढ़ी जाती थी। मदन मोहन मालवीय ने अपने व्यवहार व चरित्र में सनातन भारतीय संस्कारों को भली-भांति आत्मसात किया था। प्रातःकाल पाठशाला को जाते समय प्रथमतः हनुमान-मन्दिर में जाकर प्रणामांजलि के साथ इस प्रार्थना का गायन प्रतिदिन किया करते थे-
मनोत्रवं मारूत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्री रामदूतं शिरसा नमामि ।
श्री कृष्णजन्माष्टमी महोत्सव को वे सच्च मन व हृदय से धूमधाम के साथ मनाने वाले मालवीय ने पन्द्रह वर्ष के किशोर वय में ही काव्य रचना आरम्भ कर दी थी, जिसे वे अपने उपनाम मकरन्द के नाम से प्रकाशित किया करते थे । 1879 में उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज वर्तमान इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मैट्रीकुलेशन (दसवीं की परीक्षा) उत्तीर्ण की। हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता विश्वविद्यालय भेजा जहाँ से उन्होंने 1884 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की।विद्यालय व कालेज दोनों जगहों पर उन्होंने अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक आयोजनों में सहभागिता की। सन 1880 ई0 में उन्होंने हिन्दू समाज की स्थापना की।उनका विवाह मीरजापुर के पंडित नन्दलाल जी की पुत्री कुन्दन देवी के साथ 16 वर्ष की आयु में हुआ था।
उल्लेखनीय है कि मदन मोहन मालवीय ने कई संस्थाओं के संस्थापक तथा कई पत्रिकाओं के सम्पादक रहते हुए हिन्दू आदर्शों, सनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। प्रयाग हिन्दू सभा की स्थापना कर सम सामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। सन 1884 ई0 में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सदस्य, सन 1885 ई0 में इण्डियन यूनियन का सम्पादन, सन 1887 ई0 में भारत-धर्म महामण्डल की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार का कार्य किया। सन 1889 ई0 में हिन्दुस्तान का सम्पादन, 1891 ई0 में इण्डियन ओपीनियन का सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। इसके साथ ही सन 1891 ई0 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्वपूर्ण व विशिष्ट मामलों में अपना लोहा मनवाया था। सन 1913 ई0 में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें।यही नहीं वे आरम्भ से ही विद्यार्थियों के जीवन-शैली को सुधारने की दिशा में उनके रहन-सहन हेतु छात्रावास का निर्माण कराया। सन 1889 ई0 में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया। इलाहाबाद में म्युनिस्पैलिटी के सदस्य रहकर सन 1916 तक सहयोग किया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे । उनका कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यकाल 1909–10, 1918–19, 1930-1931, 1932-1933 था। सन 1907 ई0 में बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से आरम्भ की, साथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ भी जुड़े रहे।पिता की मृत्यु के बाद पंडित जी देश-सेवा के कार्य को अधिक महत्व दिया। 1919 ई0 में कुम्भ-मेले के अवसर पर प्रयाग में प्रयाग सेवा समिति बनाई ताकि तीर्थ यात्रियों की देखभाल हो सके। इसके बाद निरन्तर वे स्वार्थरहित कार्यो की ओर अग्रसर हुए।
मदन मोहन मालवीय के व्यक्तित्व पर भारत में शिक्षा के प्रचार- प्रसार हेतु दृढ प्रतिज्ञा आयरिश महिला डॉ. एनीबेसेण्ट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, और उन्होंने वाराणसी नगर के कमच्छा नामक स्थान पर सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना सन 1889 ई0 में की, जो बाद में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। पंडित जी ने तत्कालीन बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन 1904 ई0 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मन बनाया। सन 1905 ई0 में बनारस शहर के टाउन हाल मैदान की आमसभा में श्री डी एन महाजन की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित कराया। सन 1911 ई0 में डॉ. एनीबेसेण्ट की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई जो 28 नवम्बर 1911 ई0 में एक सोसाइटी का स्वरूप लिया। इस सोसायटी का उद्देश्य दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना करना था। 25 मार्च 1915 ई0 में सर हरकोर्ट बटलर ने इम्पिरीयल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में एक बिल लाया, जो 1 अक्टूबर सन 1915 ई0 को ऐक्ट के रूप में मंजूर कर लिया गया। 4 फरवरी, सन् 1916 ई0 तदनुसार माघ शुक्ल प्रतिपदा, संवत् 1972 को दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य आयोजन हुआ। जिसमें देश व नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोग, महाराजगण उपस्थित रहे।
भारत की तत्कालीन राजनीति को विशिष्ट दिशा में ढालने में मालवीय जी का बहुत बड़ा हाथ रहा है। मालवीय का अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति विशेष आकर्षण था। अपनी संस्कृति की अभिवृद्धि के लिए वे सदा यत्नशील रहे। मालवीय न किसी भाषा के विरोधी थे और न किसी मत अथवा सम्प्रदाय के। वे बिना किसी का विरोध किए अपना कार्य स्वयं करते थे। मालवीय जी के जीवन काल में विभिन्न विचारों से प्रभावित राजनीतिक नेता, महापुरुष आदि अधिकांश जन उस समय की एकमात्र संस्था कांग्रेस की ओर खिंच गए थे। कांग्रेस को जन्म देने वाले एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी सर ए.ओ.ह्यूम थे, किन्तु मालवीय जी जैसे लोगों के कांग्रेस, में चले जाने से उस संस्था की अंग्रेजियत धीरे-धीरे कम होती गई और भारतीयता बढ़ती गई। जहां प्रारंभ में कांग्रेस अधिवेशनों में मंगलाचरण के स्थान पर सम्राट की सुख-समृद्धि की कामना के गीत गाए जाते थे वहां मालवीय के आने के कारण उसमें वन्देमातम का गान होने लगा था। अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर कांग्रेस का सदा ध्यान लगाये रखने के लिए मालवीय सदैव विविध कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयत्न शील रहते थे। पनपती हुई अंग्रेजियत पर मालवीय बहुत अंशों में अंकुश लागने में सफल हो गए थे। वे अपने सम्मुख एक लक्ष्य निर्धारित कर एक उद्देश्य निर्धारित कर और फिर उसके लिए काम करना आरंभ कर प्राण पण से लग जाया करते थे तथा जब तक सिद्धि प्राप्त न हो जाए तब तक कार्य में वे लगे ही रहते थे। यही कुछ उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के अपने लक्ष्य और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया। मालवीय ने राजनीति में भी इसी प्रकार अपना लक्ष्य निर्धारित कर उस मार्ग पर चल पड़े। अकेले नहीं बल्कि सब को साथ लेकर। स्वयं मात्र अकेले आगे बढ़ जाना नेतृत्व की कसौटी नहीं, अपितु सबको साथ लेकर चलना ही श्रेष्ठता की कसौटी है। इसी नीति पर चलते हुए मालवीय ने पुरानी और नई पीढी में सामंजस्य स्थापित कर दोनों पीढ़ियों का उन्होंने दिशा निर्देशन किया। स्वयं सम्मान से जीते हुए उन्होंने अपने देशवासियों को सम्मानित जीवन जीने की कला सिखाई। पत्रकार के रूप में उन्होंने जो गरिमा अर्जित की, वकील के रूप में भी उसी गरिमा को स्थायी रखा तथा वारांगना का एकरूप मानी जाने वाली राजनीति में भी वे जल में कमल के समान निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए अपने उद्देश्य की पूर्ति करते रहे।मालवीय ने कभी भी स्व स्वार्थ अथवा अपने परिवार आदि के लिए अपने नेतृत्व और वकृत्व का दुरुपयोग नहीं किया। वे यदि चाहते तो अपनी वकालत से ही भारत के धन कुबेरों में से एक हो सकते थे। उनका जो परिवार तिल-तिल और कण कण के लिए संघर्षरत रहा वह सम्पदा में लोट-पोट हो सकता था। किन्तु अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत को ठुकराया और कर्मक्षेत्र में उतरे। उनकी मृत्यु 12 नवम्बर 1946 को 85 वर्ष की अवस्था में हुई। भारत सरकार ने 24 दिसम्बर 2014 को उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया।
स्वर्गीय पण्डित मदनमोहन मालवीय केवल एक व्यक्ति ही नहीं अपितु वे स्वयं में अनेक संस्थाएं भी थे। आकर्षक व अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी सदैव धवल वस्त्र धारी मालवीय का हृदय भी उनके व्यक्तित्व व धवल वस्त्र के समान पवित्र व निष्कलंक था । उन्हें कभी भी किसी ने द्वेष और ईर्ष्या के वश में आकर काम करते हुए नहीं देखा। मोहनदास करमचन्द गांधी उनको सदैव ही अपना बड़ा भाई मानते रहे और उनके परामर्श का उन्होंने सदा सम्मान किया। मालवीय नैतिकता के पुजारी थे। वस्तुतः उनकी नैतिकता ने ही देशवासियों के हृदय में उनको श्रेष्ठतम स्थान प्रदान किया। मालवीय देश के उन इने गिने- चुने महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने देशवासियों का पथ प्रदर्शन किया और जिनको देश सदा स्मरण करता रहेगा।