अति समृद्ध व गौरवमयी इतिहास का साक्षी भारतीय नौसेना

4 दिसम्बर 2019 को भारतीय नौसेना दिवस पर विशेष


यद्यपि 1971 की युद्ध में भारतीय नौसेना की पाकिस्तानी नौसेना पर विजय के स्मरण में 4 दिसम्बर को भारतीय नौसेना दिवस मनाया जाता है, तथापि भारतीय जलयान व नौसेना का समृद्ध इतिहास काफी प्राचीन व गौरवमयी रहा है । भारतीय सेना का सामुद्रिक अंग भारतीय नौसेना अपने गौरवशाली इतिहास के साथ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षक रही है। समुद्र यात्रा भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। महर्षि अगस्त्य समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। इसी कारण अगस्त्य ने समुद्र को पी डाला, यह कथा प्रचलित हुई । सीमा से दुश्मनों के प्रवेश, संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था। कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में महानाविक वुसुलिन के शक संवत् 885 में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह तथ्य वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है। भगवान राम ने यमुना पार करने के लिए नौका का ही उपयोग किया था। प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का इतिहास भारतीय इतिहास के लिए गौरवमयी है।


भारतवर्ष के प्राचीन भारतीय वांग्मय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे -


नावां शतानां पञ्चानां


कैवर्तानां शतं शतम।


सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्‌।।


अर्थात-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।


कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास रचित महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है-


सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्‌।


अर्थात-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।


उल्लेखनीय है कि भारत उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत श्रंखला के कारण अन्य देशों से कटा हुआ है तथा पूर्व और दक्षिण की ओर से समुद्र से घिरा हुआ होने के कारण विश्व के अन्य देशों के साथ सम्पर्क रखने के लिये नौकाओं का विकास और प्रयोग प्राचीन काल से ही भारत के लिये अनिवार्यता रही है। पुरातन ग्रन्थों में वरुण को सागर देवता माना गया है। देव तथा दानव दोनों  कश्यप ऋषि तथा उन की पत्नियों दिति और अदिति की संतानें थीं। वर्तमान में भी जब किसी नौका या जहाज को सागर में उतारा जाता है तो अदिति को प्रार्थना समर्पित की जाती है। नौका द्वारा समुद्र पार करने के अनेकानेक वर्णनों का उल्लेख करते हुए ऋग्वेद में एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख है। ऋग्वेद में पल्लव का उल्लेख भी है जो तूफान के समय भी जहाज को सीधा और स्थिर रखने में सहायक होते थे। अथर्ववेद में सुरक्षित, विस्तृत तथा आरामदायक नौकाओं का उल्लेख है  ।


वैदिक साहित्य में नौकाओं पोतों और समुद्री यात्राओं का उल्लेख कई बार आया है। ऋग्वेद के अनुसार वरुण समुद्र के देवता हैं और पोतों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले महासागरीय मार्गों का उन्हें ज्ञान था । ऋग्वेद में इस बात का उल्लेख है कि व्यापार और धन की खोज में व्यापारी महासागर के रास्ते दूसरे देश में जाया करते थे। महाकाव्य रामायण और महाभारत में भी पोतों और समुद्री यात्राओं का वर्णन है। यहाँ तक कि पुराणों में भी समुद्री यात्राओं की कथाएँ वर्णित हैं। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में जलयान व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तृत वर्णन अंकित है। सैनिक क्षमताओं वाले जलयान अर्थात नौका और विमानों के प्रयोग, नौकाओं व विमानों की भिड़न्त, तथा एक दूसरे विमान का अदृश्य होना और पीछा करना आदि का यथार्थ वर्णन मिलता है। वैदिक व पौराणिक ग्रन्थों में प्राचीन भारतीयों के द्वारा निर्मित जलयानों के निर्माण व उनकी संचलन प्रणाली तथा देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित हैं। आदि ग्रन्थ ऋग्वेद में विभिन्न प्रकार के जलयानों व विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों अर्थात वैज्ञानिकों ने बनाया था। यातायात के लिए भी ऋग्वेद में जलयानों व विमानों का उल्लेख है । जल यातायात सम्बन्धी साधनों का वर्णन करते हुए ऋग्वेद 6-58-3 में एक ऐसे जलयान का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। ऋग्वेद 9-14-1 में भी जल यातायात के लिए प्रयोग में आने वाली कारा नामक जलयान का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। वायु तथा आकाश में उड़ सकने वाले ऐसे विमानों के आकार -प्रकार का भी उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। ऋग्वेद 3-14-1 में त्रिताला अर्थात तीन मंजिला, ऋग्वेद 4-36-1 त्रिचक्र अर्थात तिपहिया रथ, ऋग्वेद 5-41-6 वायुरथ अर्थात गैस और वायु से चलने वाली, ऋग्वेद 3-14-1 में विद्युत शक्ति संचालित रथ विमानों का उल्लेख है । यजुर्वेद में भी जुड़वा अश्विनी कुमारों द्वारा निर्मित एक विमान व उसकी संचलन प्रणाली उल्लेख है। इस विमान के प्रयोग से उन्होंने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था। ऋग्वेद 1- 25- 7, 1- 48- 3, 1- 56- 2, 7/ 88/ 3-4 इत्यादि में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख अंकित हैं । याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है। ऋगवेद में सरस्वती नदी को हिरण्यवर्तनी अर्थात सु्वर्ण मार्ग तथा सिन्धु नदी को हिरण्यमयी अर्थात स्वर्णमयी कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इस के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्त्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।


ऋग्वेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ- साथ भारत के पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों महासागरों का उल्लेख है जिन्हें आज खाडी बंगाल तथा अरब सागर कहा जाता है। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। संस्कृत ग्रन्थ युक्तिकल्पतरू में नौका निर्माण का विस्तृत विवरण अंकित है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रन्थ में नौका निर्माण की विस्तृत जानकारी है जैसे किस प्रकार की लकडी का प्रयोग किया जाये, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो। उस को किस प्रकार सजाया जाये ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पतरू में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियाँ भी निर्धारित की गयीं हैं।


आर्यभट्ट तथा वराह मिहिर नें नक्षत्रों की पहचान कर सागर यात्रा के मानचित्रों का निर्माण की कला भी दर्शायी है। इसके लिये एक मत्स्य यन्त्र का प्रयोग किया जाता था जो आधुनिक मैगनेटिक कम्पास का अग्रज है। इस यन्त्र में लोहे की एक मछली तेल जैसे द्रव्य पर तैरती रहती थी और वह सदैव उत्तर दिशा की तरफ मुंह किये रखती थी। भारतीय पौराणिक ग्रन्थों में महासागर, समुद्र और नदियों से जुड़ी हुई ऐसी अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख होने से इस सत्य का सत्यापन ही होता है कि भारतीयों को नौका यान का ज्ञान आदिकाल से ही रहा है और मानव को समुद्र और महासागर रूपी संपदा से काफ़ी फ़ायदा हुआ है। और प्राचीन काल से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक हिंद महासागर पर भारतीय उप महाद्वीप का वर्चस्व कायम रहा।  राजनीतिक कारणों से अधिक व्यापार के लिए भारतीय समुद्री रास्तों का प्रयोग करते थे । इस प्रकार 16 वीं शताब्दी तक का काल देशों के मध्य समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार, संस्कृति और परंपरागत लेन-देन का गवाह रहा है । हिंद महासागर को हमेशा एक विशेष महत्व का क्षेत्र माना जाता रहा है और भारत का इस महासागर में केंद्रीय महत्व है। भारतीय साहित्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला और पुरातत्व-विज्ञान से प्राप्त कई साक्ष्यों से भारत की समुद्री परंपराओं का अस्तित्व प्रमाणित होता है। कथा सरित-सागर नामक ग्रन्थ में उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को भी बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति के समान चलते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। पांचवीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत बृहत्‌ संहिता तथा ग्यारहवीं सदी के राजा भोज कृत युक्ति कल्पतरु में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है। नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है। युक्ति कल्पतरु ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है। नौका के दो प्रकार का उल्लेख है- सामान्य व विशेष। सामान्य-वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें, और विशेष-जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके। नौका के उत्कृष्ट निर्माण, नौका की सजावट का सुंदर वर्णन करते हुए कहा गया है कि चार श्रृंग अर्थात मस्तूल वाली नौका सफेद, तीन श्रृंग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रृंग वाली को नीला रंग से रंगना चाहिए। नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।


 


भारत में नौका यातायात का प्रारम्भ सिन्धु नदी में सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व आज के विद्वानों की नजर में लगभग 6000 वर्ष पूर्व हुआ। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उद्गम संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। प्राचीन काल में सम्पूर्ण विश्व में सातों समुद्र पार सारे प्रदेशों से संपर्क रखने के लिए भारत में ही सब प्रकार के जहाज अर्थात नौका बनाकर देश-प्रदेश को दिये जाते थे। भारत के संस्कृत के शब्द नावि से ही यूरोपियों ने नेवी अर्थात नावि (Navy) शब्द रखा। ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार सन 1735 में भारत के सूरत नगर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए एक नौका बनवाई गई। हालत यहाँ तक भी थी कि अंग्रेज़ भारत के पुराने पड़े जहाजों को भी अपने बने नए जहाजों से अच्छा मानकर लेते थे। लौजी कैसल नाम का 1000 टन भर का जो व्यापारी जहाज भारत में बनाया गया था वह लगभग 75 वर्ष तक सागर पर गमनागमन करता रहा। एक अंग्रेज़ अपनी पुस्तक में कहता है कि बंबई में बने जहाज बड़े पक्के, टिकाऊ और सुंदर होते थे। यूरोप में बने जहाज भारतीय जहाजों से बहुत निकृष्ट होते थे। भारतीय नौकाओं की लकड़ी इतनी अच्छी होती थी कि उनसे बनी नौकाएँ 50 से 60 वर्ष तक लीलया सागर संचार करती रहती है। उस वैदिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक प्रमुख युद्ध-नौकाएँ बनी थी। अनेकों नौकाएँ अंग्रेज़ भारत से खरीदते रहे। ब्रिटिश ओक वृक्ष की लकड़ी से भारतीय सांगवान लकड़ी चार-पाँच गुना अधिक टिकाऊ होती है।


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