आबोहवा

राजधानी दिल्ली अंग्रेजों और मुगलों के शासन से बहुत पहले से ही यहां आ बस जाने के लिये आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। दिल्ली की बढ़ती जनसंख्या इसका सबूत है। जनसंख्या भी  हर साल पहले की बढ़त के प्रतिशत से अधिक फीसद दर पर बढ़ती है। दिल्ली का रकबा उतना ही है उसे बढ़ाया नहीं जा सकता मगर दिल्ली एक ऐसा शहर है जिसके दरवाजे हमेशा एक धर्मशाला के विशाल दरवाजों की तरह खुले रहते हैं। दिल्ली के लोग भले ही इतने उदार नहीं हों मगर बजातेखुद दिल्ली बेहद दरियादिल है और वह यहां आने वाले एक एक आदमी और एक साथ आने वाले समूहों का खुलेदिल से स्वागत करती है। दिल्ली का आंगन सीमित होते हुये भी व्यापक है कि वह लाखों की तादाद में आने वाले लुटे पिटे रिफयूजियों को अपने आंगन में शरण दे कर अपने आंचल की ठंडी हवा से ढाढस देती है। यहां आने वाले परिवार दिल्ली की दरियादिली की कद्र करते हैं और जानते हैं कि दिल्ली उनको 20 गज से लेकर सैंकड़ों गज जगह में या फिर आसमान छूती बहुमंजिला इमारत के किसी न किसी माले या फिर किसी स्लम या सड़क के फुटपाथ पर पनाह दे देगी। इसी तरह दिल्ली में आने वाले परिवार को कुछ दिन में कोई न कोई काम मिल जाता है। जहां तक भोजन का सवाल है आज तक दिल्ली में किसी व्यक्ति की भूख से मौत नहीं हुई। दिल्ली में भले ही खेती की जमीन नहीं बची लेकिन सबको खाने को मिलता है और हजारों लोगों की जरूरत के बराबर का बचा खाना या फिर शादियों जैसे समारोह की प्लेटों में बड़ी मात्रा में छोड़ी गयी झूठन बेकार जाती है। जिसे घर से बाहर खाने की मजबूरी हो तो दस रुपये से लेकर दस हजार रुपये में वह पेट भर सकता है। इसलिये तो जुलूस और रैलियों में बाहर से आये लोगों में से हजारों लोग दिल्ली की चमक दमक और रौनक देख कर यहीं बस जाते हैं और बाद में अपने गांव वालों को अपने यहां जिंदगी गुजारने का आसरा देते हैं। ये दिल्ली है मेरे दोस्त यहां आ कर कोई कभी वापसी का नाम नहीं लेता। भले ही दिल्ली में कोई महामारी फैले, बिजली, परिवहन की कमी सताने लगे दिल्ली वाले कष्ट सह कर भी दिल्ली में डटे रहते हैं। दिल्ली की आबोहवा घातक है, प्रदूषण से सांस लेना कठिन है और घर से बाहर निकलते दम घुटने लगता है और यहां का पानी देश के 20 बड़े शहरों के मुकाबले सबसे खराब है, दूषित है। ऐसे में भी दिल्ली को अलविदा कहने वाला कोई नहीं है। इतना ही नहीं अगर झांसी,आगरा में दोगुना वेतन मिले और मुफ्त सुविधायें हों तब भी दिल्ली छोड़ कर जाने की कोई हिम्मत नहीं करेगा। शायर जौक ने कहा था—इनदिनों गरचे दकन में हैं बहुत कद्रे सुखन। कौन जाये जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर। 


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