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दिल्ली में गठबंधन की चर्चा समाप्त होने का नाम नहीं ले रही। प्रत्येक एक दिन के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी और दिल्ली की सबसे नयी पार्टी के नेताओं के अलग अलग किस्म के बयान सुखियों में होते हैं मगर न तो कोई नतीजा आता है और न ही गठबंधन के अध्याय का पटाक्षेप होता है। कोई भी गठबंधन तभी प्रभावी और धारदार माना जा सकता है जब दल भी मिलें और उन दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के दिल भी मिलें। दिल मिले बिना दलों के मिल जाने से सफलता की गारंटी की आशा नहीं की जा सकती। इस समय जो ना नुकर से गठबंधन में देरी की जा रही है उसका उदाहरण नहीं मिलता। न न करते प्यार यानि गठबंधन हो गया तो इस बात का क्या भरोसा होगा कि दोनों दल मिलकर चल सकेंगे, एक सुर में बोल सकेंगे, कदमताल कर सकेंगे, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है जिस का उत्तर तभी मिल सकेगा अगर गठबंधन हो गया। एक उम्मीदवार के सामने एक साझा उम्मीदवार उतारने पर जोर दिया जा रहा है, हमारे देश में बेतहाशा पार्टियों के बनने, बिखरने, टूटने, जुड़ने, फिर बिखरने, विभाजन और फिर महामिलन के परिदृश्य में मृगतृष्णा प्रतीत होती है। ऐसे में गठबंधन तभी हो सकता है जब देश में या किसी विशेष राज्य में बहुत विलक्षण परिस्थितियां हों और सभी दलों को एकमत बनाने के लिए किसी बड़ी राजनीतिक या सामाजिक हस्ती की प्रेरणा हो। आपातकाल के बाद 1977 की विलक्षण परिस्थितियों में जयप्रकाश नारयण ने अपने प्रभाव और प्रेरणा से एक उम्मीदवार के सामने एक उम्मीदवार को उतारने का परिदृश्य तैयार किया था जिसके वांछित परिणाम मिले थे। मगर न तो अब इतनी अधिक विलक्षण परिस्थितियां हैं और न ही कोई ऐसा शीर्ष प्रेरणा स्रोत है जो दिल्ली समेत देशभर में एक के मुकाबले एक उम्मीदवार के बीच का चुनावी मैदान बना कर आर पार का मुकाबला बना दे। जहां तक गठबंधन का प्रश्न है उसका फायदा तभी मिलता है जब ऐसा समय पर किया जाए वरना दिल मिलने और संग चलने के लिए पुरानी शर्म दूर करने का समय भी नहीं मिलता और गठबंधन ऐसा वाहन बना दिखाई देता है जिसमें ईंधन और लुब्रिकंट की किल्लत हो। गठबंधन वोटों के गणित यानी जोड़ के बल पर कामयाब हो सकता है। यह आधार कई गठबंधनों की सफलता का कारण नहीं बन सका। दलों के बीच अनुकूलन ओर व्यावहारिक संतुलन बनाना है तो गठबंधन जल्दी करना होगा