पांच प्रदेशों में बीजेपी-कांग्रेस की अग्निपरीक्षा

 


देश के पांच राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और मिजोरम राज्य विधानसभा चुनाव हो रहे  है। कांग्रेस और मोदी सरकार चुनावी बिगुल फूक चुकी है। इन 5 राज्यों की 83 लोकसभा सीटों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अग्नि परीक्षा है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा पिछले पंद्रह साल से और राजस्थान में पांच साल से सत्ता में है। इनके अलावा, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव इस बार अलग तेवर और करवटों के साथ होंगे क्योंकि उन राज्यों में भी भाजपा अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को उत्सुक है।


ये महज विधानसभा चुनाव ही नहीं हैं। ये 2019 के आम चुनाव का पूर्वाभ्यास हैं, सेमीपफाइनल हैं। यदि अग्निपरीक्षा प्रधानमंत्री मोदी के स्थापित करिश्मे और लोकप्रियता की है तो विपक्षी चेहरे के तौर पर राहुल गांधी की भी होगी। दरअसल ये अग्निपरीक्षा के ही चुनाव हैं क्योंकि देश की जनता को 2019 का नेतृत्व तय करना है लिहाजा मुद्दे गौण ही रहेंगे। सीधा समीकरण होगा-मोदी बनाम राहुल। मोदी बनाम बिखरा विपक्ष। यह इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि विपक्ष के विभिन्न दल कांग्रेस से छिटकते जा रहे हैं। ऐसे में महागठबंधन सवालिया होता जा रहा है।


विपक्ष का महागठबंधन बनने का प्रयोग शुरुआत में ही नाकाम हो रहा है लेकिन कांग्रेस पुराने मुद्दों को ही ढोए जा रही है जिनके आधार पर वह लगातार चुनाव हारती आई है-15 लाख रुपए, 2 करोड़ नौकरियां, किसानों को फसलों के उचित दाम, दलितों-पिछड़ों पर अत्याचार और अब राफेल विमान घोटाला आदि। हाल ही में कुछ सर्वे सामने आए हैं जिनमें करीब 60-70 पफीसदी लोगों को राफेल विमान सौदे, डालर-रुपए की स्थिति, नीरव मोदी-माल्या आदि मुद्दों की कोई जानकारी ही नहीं थी या लोगों के सरोकार ही नहीं हैं।


मप्र में व्यापम घोटाले से बड़ा मुद्दा आज भी कोई नहीं है जिसने करीब 40,000 लोगों को शिकार बनाया। मंदसौर में किसानों पर गोलियां चलाई गईं और कुछ मारे भी गए। बेशक जवाबदेही भाजपा की राज्य सरकार की है। व्यापम घोटाले की जननी जबलपुर है लेकिन राहुल गांधी अपनी भजन मंडली के साथ नर्मदा नदी की आरती में ही मशगूल रहे। क्या ऐसे मुद्दों पर कमोबेश मप्र और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भाजपा को पराजित कर सकेगी? बेशक सत्ता-विरोधी लहर भाजपा के खिलाफ है।


कांग्रेस के लिए राजस्थान की राह थोड़ी मुश्किल हो सकती है क्योंकि 2013 में हुए चुनावों में कांग्रेस को करारी मात देकर भाजपा सत्ता में आई थी। ऐसे में देखना यह होगा कि कांग्रेस अबकी बार राज्य में जीत हासिल कर पाएगी या फिर इस बार भी खाता खोलने में विफल रह जाएगी। वहीं राजस्थान में भाजपा को भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। पिछले दिनों जब राजस्थान में अलवर और अजमेर में लोकसभा चुनावों के लिए उपचुनाव हुए तो भाजपा को इसमें करारी हार झेलनी पड़ी थी। इसके बाद से ही लग रहा है कि भाजपा में राजस्थान में हालात सही नहीं है। तभी चुनावों की तारीखें घोषित करने से ऐन पहले मुख्यमंत्री वसुंधरा को ‘किसानों के लिए मुफ़्त बिजली की घोषणा करनी पड़ी। सापफ है कि राजस्थान में भाजपा की स्थिति सुखद नहीं है लेकिन भाजपा को प्रधानमंत्री मोदी का स्थापित और भरोसेमंद नेतृत्व हासिल है। पार्टी का संगठन व्यापक और मजबूत है। संघ के भी व्यापक काडर का समर्थन भाजपा के पक्ष में है। प्रधानमंत्री ने अजमेर रैली में एक विश्वसनीय मुद्दा उछाला है-राजस्थान में भाजपा को लगातार दूसरी बार सत्ता में लाकर वह परंपरा को तोड़ना चाहेंगे। 


राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2011 के बाद जितने भी विधानसभा चुनाव लड़े हैं, उनमें से कुछ को छोड़कर अधिकांश में उसे हार का ही सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में 2013 में पिछले चुनाव हुए थे जिसमें कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई थी। राजस्थान में उसे 200 में से केवल 25 सीटें हासिल हुई थी जबकि भाजपा 160 सीटों के प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटी थी। मध्य प्रदेश में 230 में से कांग्रेस को मात्रा 58 सीटें प्राप्त हुई थी जबकि वहां भी भाजपा ने 165 सीटें हासिल करके दो तिहाई बहुमत प्राप्त किया था। छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं और भाजपा ने 49 सीटें हासिल कर तीसरी बार रमन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी। कांग्रेस को इसके अगले साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। वह मात्रा 44 लोकसभा सीटों पर सिमट गई। पिछले चार-साढ़े चार साल में जितने भी राज्यों में चुनाव हुए हैं, पंजाब को छोड़कर वह हर जगह हारी है। आज हालत यह है कि भाजपा और उसके सहयोगियों की केन्द्र के साथ-साथ 22 राज्यों में सरकारें हैं और कांग्रेस चार छोटे प्रदेशों में सिमटकर रह गई है। 


इन चुनाव में अगर राहुल की कोशिशें सिरे नहीं चढ़ती तो उनका लोकसभा चुनाव में विरोधी दलों के साथ गठबंधन का सपना टूटने में देर नहीं लगेगी। ऐसे में विरोधी दलों में यह संदेश चला जाएगा कि पंद्रह-पंद्रह साल की एंटी इनकंबैंसी का फायदा भी यदि राहुल गांधी और कांग्रेस नहीं उठा पा रहे हैं तो लोकसभा चुनाव में पांच साल की एंटी इनकंबैंसी का वो क्या फायदा उठाएंगे। जहां तक भाजपा का प्रश्न है, उसे थोड़ा बहुत नुकसान राजस्थान में होने की आशंका है परंतु पिछले कुछ वर्षों में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें पार्टी की सपफलता सुनिश्चित करने के लिए नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने जिन रणनीतियों को सिरे चढ़ाकर विरोधियों को चित्त किया है, उसे देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि लोकसभा चुनाव से पहले वह नहीं चाहेंगे कि इनमें से किसी भी राज्य में उन्हें विफलता और कांग्रेस को सफलता की संजीवनी मिले।


दरअसल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में काफी अर्से से राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हो रहे हैं। इनके चुनाव नतीजे तय करेंगे कि लोकसभा चुनाव में राजनीतिक ध्रुवीकरण का रास्ता खुलेगा या बंद होगा। इन्हीं चुनावों से तय होगा कि विपक्षी गठबंधन बनेगा या नहीं और भाजपा को भी पता चलेगा कि उसके मुकाबले विपक्ष का स्वरूप क्या होगा। सपफलता जनादेश ही बताएंगे लेकिन भाजपा बूथ स्तर की पार्टी है। उसका चुनाव हारना तभी संभव है, जब जनता एकदम बदलाव पर आमादा हो। कांग्रेस की कुंठाएं यहीं से स्पष्ट लग रही हैं कि उसके प्रवक्ता देश की न्यायपालिका और चुनाव आयोग सरीखी संवैधानिक संस्थाओं पर ही संदेह भरे सवाल कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले राज्यों में सफलता या विपफलता का असर केन्द्रीय चुनावों पर लाजिमी तौर पर पड़ेगा, ऐसा दावा भरोसे के साथ नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद यह मानने में किसी को गुरेज  नहीं होना चाहिए कि यदि भाजपा इनमें से एक या दो राज्यों में भी सत्ता गंवाती है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में होने वाले इन चुनाव में उसकी विफलता को विरोधी जरूर उछालेंगे। पिफर लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलापफ इसे अस्त्रा के रूप में इस्तेमाल करके विरोधी दलों को कांग्रेस की । अगुआई में एकजुट करने की कोशिश भी करेंगे। बहरहाल यह अलग मुद्दा है लेकिन इन पांच चुनावों की ‘अग्निपरीक्षा' ऐसी है कि उनके जनादेश के बाद ही 2019 की बयार चलनी शुरू होगी।


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