क्या सच में हम बच्चों को आजादी दे पाये है?

बाल दिवस 14 नवम्बर पर विशेष।


आज बच्चों के साथ अनेक प्रकार के अप्राकृतिक और असमाजिक अपराध देखने,सुनने को मिलता रहता है। समझ में नहीं आता है कि हम सामाजिक प्राणी हैं या असामाजिक प्राणी। जिस उम्र में बच्चे को हंसना खेलना चाहिए उस उम्र में हम उनसे अनेक प्रकार के असामाजिक कृत्य करवाते हैं बच्चों से।  कभी-कभी तो बच्चों के साथ ऐसे ऐसे घृणित अपराध देखने ,सुनने को मिलता है कि हमें इंसान बने रहने में शर्म महसूस होती है तथा इंसान को इंसान कहने में शर्म लगती है। जो बच्चा अपनी तोतली जुबान से लाखों दिलों पर राज कर सकता है करता है उसके साथ घृणित अपराध किया जाता है? क्या यह एक स्वस्थ समाज के लिए उचित है? क्या यह बाल अधिकार का हनन नहीं है? क्या ऐसे लोग समाज राष्ट्र के दुश्मन नहीं हैं? क्या इन्हें मानव ठहराया जा सकता है? यह कुछ ऐसे प्रश्न है जिस पर हम सब को गहन चिंतन मनन करने की आवश्यकता है। क्योंकि किसी का बच्चा हो वह देश,राष्ट का भविष्य होता है और उसके साथ किसी भी प्रकार का अपराध बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे कठोर कानून की जरूरत आज है जो उन्हें ऐसी सजा दे जिससे दूसरे की सुनकर रूह कांप जाय। कहीं न कहीं कुछ ना कुछ कमियां है जिससे ऐसे अमानुष और कलंकित लोग हमारे बीच पनप जाते हैं जो परिवार जाति बिरादरी, समाज, क्षेत्र के लिए कलंक साबित होते हैं।
       हम हर वर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस बड़ी धूमधाम से मनाते हैं । लंबे लंबे भाषण बाजी करते रहते हैं। लेकिन सच में आप अपने आप से पूछिए कि क्या आपने कभी किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया है?  किसी रोते हुए बच्चे से उसका दर्द पूछा है ? किसी सड़क पर भीख मांगते, सामान बेचते , मजदूरी करते बच्चों पर तरस आया है ? अगर हां तो इनकी ऐसी स्थिति क्यों है ? अगर हम सामाजिक प्राणी हैं तो उनके प्रति हम इतने असामाजिक क्यों बन जाते हैं ? भारत से लेकर विदेश तक बहुत सी ऐसी संस्थाएं बच्चों के उत्थान और विकास के लिए काम करती हैं मगर अफसोस और दुख होता है यह जानकर कि अभी भी बच्चे भुखमरी,कुपोषण, नशा, आत्महत्या, बाल मजदूरी आदि से जूझ रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि हर साल होने वाली घोषणाएं, लंबे चौड़े भाषण और इनके उत्थान , विकास के लिए काम करने वाली संस्थाएं कहां गुम हो जाती हैं।अभी हाल ही में प्राप्त खबर में पता चला है कि भारत में सबसे ज्यादा बच्चे असमय काल के गाल में समा जाते है।बड़ी अफसोस और ताजुब हुआ कि किसी जिम्मेदार ने चु तक नही किया।


मत छिनिए बचपन


14 नवबंर को हम ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन के रूप मेंबाल दिवस  मनाते है जो बच्चों को अत्यधिक प्यार करता था।सच मे बच्चे प्यार और प्रेम के लिए ही है। बच्चे इंसानियत,भेदभाव रहित होने का संदेश देते है।हमने इन बच्चों से इनका सब कुछ छिन लिया अपनी इच्छा पुरी करने के चक्कर में।आज हर बच्चा जज,कलक्टर,आई ए एस, पीसीएस, इंजिनियर आदि बनना चाहता है लेकिन कोई इंसान नही बनना चाहता।बड़ी अफसोस इस बात का है कि इस इच्छापूर्ति में बचपन की आहूति दे दी जा रही है।स्कूल बच्चों को फीस मशीन समझते है,टीचर इनके साथ खानापूर्ति करते है,अभिवाहक अपने सपने पुरे करने की मशीन समझते है।इनकी भावनाओं ,जज्बातों को कोई समझने की कोशिश ही नही करता है।इतनी सोच,समझदारी और समय किसी के पास नही है कि इनके बचपन के विषय में भी सोच सके।स्कूल से लेकर घर तक सिर्फ होमवर्क और सलेबस पुरी करने की टेशन।इसी टेशन में बचपन कब बित गया पता ही नही चला।आज जो भी इनके साथ बुरा भला हो रहा है उस सबके जिम्मेदार हम सब कही न कही,किसी न किसी रूप में जरूर है।आखिर ये हमारे बच्चे है,हमारे देश के भविष्य है इनके विषय में हम नही तो कौन सोचेगा। सोचिए जरा।इन्हे क्यों न खुले आकाश में नील गगन तले आजाद पंछी की तरह उड़ने दे ? क्यों  न हम इनकी भावनाओं ,जज्बातों की कद्र करे?,क्यों न हम इन्हे चाचा नेहरू वाला प्यार दें? सब कुछ दे सके न दे सके लेकिन इनका बचपन तो जरूर लौटा दे। बड़ी दु:ख होता है उन बच्चों को देखकर जिनके हाथों में कलम पेसिंल की जगह कप प्लेट,जूठी थाली और बर्तन,किसी न किसी बोझ तले दबा बचपन दिखता है।इन सब के बावजूद उन्हे इसकी पुरी मजदूरी की जगह गालियाँ,डांट, आदि मिलता है।क्या हमारे अंदर का इंसान मर चुका है? क्या हमारा जमीर मर चुका है? क्या हम अपने आप के साथ, देश के भविष्य के साथ वफादारी कर पा रहे है? इन सारे प्रश्नों का एक ही जबाब होगा नही।सोचिए जरा क्या हमारी कोई जिम्मेदारी इन मालुमों,जुल्म सहते बचपन के प्रति नही बनती है।क्यों न इस बाल दिवस को यह प्रण करे कि हम हर बच्चे को उसका अधिकार व बचपन लौटाएगें। किसी भी बच्चे को हिंसा,अपराध,अपराधिक कृत्य आदि का शिकार नही होने देगें।हमने तो बीड़ा उठा लिया है अब आपकी बारी है।


 


 


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