

दिल्ली में चुनाव दूर है फिर भी इससे जुड़ा शोर भरपूर है। यह सही है कि चुनाव में शामिल होने वाला एक पक्ष यानि देश की सबसे पुरानी पार्टी अब भी मजबूर है क्योंकि इस पार्टी की दिल्ली में गंभीरता से काम कर रही अध्यक्षा के असमय देहावसान के बाद सबसे पुरानी पार्टी की सुध बुध गायब हो गयी है। चिंता और दुख का विषय है कि पार्टी के अखिल भारतीय स्तर के नेता दो महीने और तीन सप्ताह के बाद भी दिवंगत अध्यक्ष का कोई सब्स्टीट्यूट तलाश नहीं कर सके। यह भी सत्य है कि दिवंगत अध्यक्ष जैसा सब्स्टीट्यूट नहीं मिल सकता लेकिन कोई तो ऐसा होगा जो पार्टी की कमान संभाल सके। इस मुद्दे में अकारण देर कर रहा केन्द्रीय नेतृत्व खुद अपने पांव पर कुल्हाडी चला रहा है। समझदार के लिये इशारा काफी है, शायद किसी समझदार को इस इशारे से कोई सीख मिले मगर दिल्लीवासियों को संदेह होता है। बहरहाल शेष दोनों पक्ष चुनाव की रणभेरी बजा रहे हैं शायद इसका शंखनाद सबसे पुरानी पार्टी को सुनाई नहीं देता। लगता है कि जनता जनार्दन ने भी इस पार्टी को इसके हाल पर छोड़ दिया है। दिल्ली की सबसे नयी पार्टी और भगवा दल दोनों चुनाव मैदान में औपचारिक रूप से उतरने से पहले अपने अस्त्र शस्त्र तेज कर रहे हैं। भगवा दल के पास केन्द्र में अपनी सरकार होने का एक फायदा है और इसने 21 वर्ष बाद दिल्ली में शासन की अधिकारी बनने की पूरी तैयार कर ली है। भगवा दल तत्काल दिल्ली में सत्तारूढ़ सबसे नयी पार्टी को हर प्रहार का जोरदार माकूल जवाब देता है। कई बार तो भगवा दल के वार से नयी पार्टी बुरी तरह आहत महसूस हो जाती है। उधर झाड़ूवादी नयी पार्टी कुछ माह पहले अपनी मांद से निकल कर बेहद सक्रिय हो गयी है। प्रतिदिन नया ऐलान, कल्याणकारी योजनाओं का जंजाल और प्रचार- प्रसार के लिये न जाने कितने फुल पेज के विज्ञापन जारी करने से माहौल बनाने की पुरजोर कोशिश कर रही है ताकि अचानक गंभीर बने सीएम का जोरदार महिमा मंडन करके आगामी विधानसभा चुनाव में पहले मिली 67 सीटों से भी अधिक पर विजयी बनाया जाये। इस पार्टी के संकल्प और आत्मविश्वास से जनता को कोई एतराज नहीं है मगर दिल्ली के लोग इस तथ्य से परेशान हैं कि इतने ज्यादा विज्ञापनों के कारण उन्हें अखबारों में पढ़ने के लिये खबरें नहीं मिल पातीं। समाचार पत्रों का यह भी दायित्व होता वे लोगों को सही सूचना, समाचार, ज्ञान और अधिकारों की जानकारी प्रदान करें। अखबारों में 60 फीसद से ज्यादा भाग में विज्ञापन प्रकाशित होने से जनता खुद को सूचना और जानकारी से वंचित,ठगा महसूस कर रही है। ऐसे में भारतीय प्रेस परिषद से मांग की जानी चाहिये कि वह अखबारों में विज्ञापन प्रकाशन की कोई सीमा तय करे।