

दिल्ली है गमजदा, तमाम महफिल उदास हैं। जो रहनुमा थे लाजवाब, अब नहीं हमारे पास हैं। शीलाजी, सुषमाजी, अरुणजी क्या गये- रूठ गये दिन बहार के,अब खिले खिले गुल लगते हैं- खार से। दिल्ली पर न जाने कैसा कहर टूटा कि केवल पांच सप्ताह में तीन कदावर नेता हमसे मुंह मोड़ कर न जाने कहां चले गये। नियति के आगे किसी का दमखम, रसूख, धौंस नहीं चलती क्योंकि काल के कारिंदे पल भर में अपना स्कोर बढ़ा कर फुर्र हो जाते हैं और हम ठगे ठगे, हाथ मलते,हमारी नजर में होनी की हुई अनहोनी को बेबस हो कर देखते रह जाते हैं। समूची दिल्ली इन तीन महान हस्तियों के नहीं रहने से बहुत दिन तक गमगीन रहेगी। यह तो सत्य है कि दिल्ली के इन तीन मेहरबानों को यह शहर युगों युगों तक नहीं भुला सकेगा। इन तीनों नेताओं ने दिल्ली को जीने के, आगे बढ़ने के सलीकें सिखाये और ये किसी एक शख्स के लिये नहीं अपितु पूरी दिल्ली के काम आये। ये जहां से निकलते थे मंजिलें खुद चल कर दस्तक दिया करती थीं। तीनों ही मकबूल थे और हमेशा इसी तरह लोगों के दिलों में अपनी यादों को साथ जिंदा रहेंगे। शीलाजी ने दिल्ली की तस्वीर बदली, यहां की हरियाली, खुशहाली, पर्यावरण को जिंदगी दी और यहां की जनता को प्यार करते हुये उन्हें कुछ अहम विषयों में काम करने की भागीदारी दी, बच्चों और नौजवानों की तालीम का परिदृश्य बदला तथा दिल्ली में नयी कार्य संस्कृति लाने के द्वार खोले। दिल्ली को अपने दिल में बसा कर इसे विश्व में सबसे हरित राजधानी का रुतबा महसूस करने का आधार बनाया। सबसे अहम यह है कि दिल्ली को नयी पहचान दिलाई। सुषमाजी ने केन्द्रीय मंत्री के रुप में दिल्ली के हितों का ध्यान रखा। संचार मंत्री रहते हुये दिल्ली और आसपास के लगभग100 किलोमीटर दूरी के शहरों को एसटीडी सेवा से मुक्ति दिलाई, विदेश मंत्रालय में मंत्री बनीं तो उसे पासपोर्ट और वीजा की जनजन की कठिनाइयां दूर करने का सहयोगी केन्द्र बना कर दुखी लोगों के आशीर्वाद ले कर ख्याति प्राप्त की। वे दिल्ली की सास्कृतिक जीवन की प्राण बन गयीं। अरुणजी ने यह दिखा दिया कि बिना कोई चुनाव लड़े भी किस तरह दिल्ली की जनता के दिलों पर राज किया जा सकता है। वे पार्टी, गठबंधन और सरकार के संकटमोचक बने और उन्होंने शीर्ष नेताओं को राजनीति की उबड़ खाबड़ खतरनाक गलियों से बचा कर सरकार पर आंच नहीं आने दी। उन्होंने अपने व्यवहार और सूझबूझ से राजनीति को दूषित नहीं होने दिया। तीनों नेताओं को गरूर नहीं था और वे दिल्ली के सच्चे सेवक थे। उन पर अनंत लेखन संभव है। बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, हमीं सो गये दास्तां कहते कहते।